गुरुवार, 2 नवंबर 2017

बिहेवियरल इकोनॉमिक्स

*क्या बला है बिहेवियरल इकोनॉमिक्स !!*

पैसों के मामले में लोग सिर्फ दिमाग से फैसले नहीं लेते. अक्सर इंसानी जज्बात दिमाग पर हावी हो जाते हैं , इसलिए आर्थिक मामलों को समझने के लिए अर्थशास्त्र के साथ मनोविज्ञान को समझने की भी जरूरत है .यही बिहेवियरल इकोनॉमिक्स कहलाता है ,जिसके लिए इस साल *रिचर्ड  एच थेलर  को नोबेल पुरस्कार दिया गया है*

पैसे के साथ इंसान का रिश्ता उलझा हुआ है.  लालच,  भविष्य का डर और खर्च करने से पैदा होने वाला अपराधबोध ऐसे जज्बात हैं जो इस उलझन को और बढ़ाते हैं  .बिहेवियरल इकोनॉमिक्स के जरिए हम पैसे से जुड़ी आदतों को समझने की कोशिश करते हैं इनमे से कुछ आदतों के बारे में आप भी जानिए.

1. *'पेन ऑफ  पेइंग'*.
विद्वान मानते हैं कि पैसे को जब हम अपनी जेब से जुदा करते हैं ,तो हमें  तकलीफ होती है .यह तकलीफ तब ज्यादा होती है ,जब हम नोटों की शक्ल में पैसा दे रहे हों.क्रेडिट कार्ड या उधार माल खरीदते वक्त यह तकलीफ कम हो जाती है. यही कारण है किस्तों में उधार सामान खरीदते या क्रेडिट कार्ड के जरिए खर्च करते  वक्त लोग कई बार गैर जरूरी चीजें खरीद लेते हैं . मतलब कि यदि  टाइम ऑफ पेमेंट और टाइम आप परचेस को अलग कर दिया जाए  तो यह तकलीफ कम हो जाती है . इंसानी स्वभाव की इसी कमजोरी का फायदा उठाकर कंपनियां, 'अभी खरीदो बाद चुकाओ' का लालच देती हैं . तो यदि आप अपने खर्च को कंट्रोल करना चाहते हैं तो क्रेडिट कार्ड का उपयोग ना करें और जिस वक्त जो सामान खरीदें उसी समय उसका पेमेंट करें.

2. *खर्च से जुड़ा अपराधबोध* -
पैसा खर्च करना अपराधबोध लाता है .कई लोग सक्षम होते हुए भी पैसा खर्च नहीं कर पाते क्योंकि उनका दिमाग खर्च को लेकर ज्यादा अपराधबोध महसूस करता है . मान लीजिए किसी महिला को एक साड़ी पसंद आती है ,पर उसे लगता है दुकानदार उसकी कुछ ज्यादा कीमत बता रहा है . वह उसे नहीं खरीदती . उसका पति यह देख कर अगले दिन वही साड़ी खरीद लाता है और उसे तोहफे में देता है  .सिर्फ आर्थिक दृष्टि से समझे तो पत्नी को नाराज होना चाहिए क्योंकि साड़ी असल कीमत से ऊंचे दाम पर खरीदी गई है और इस तरह नुकसान हुआ है. लेकिन वह खुश हो जाती है .साड़ी की कीमत रुपयों में उतनी ही है लेकिन किसी दूसरे के द्वारा लाए जाने की वजह से पेन  आफ पेइंग  महसूस नहीं हो रहा है .और इसलिए आर्थिक कीमत वही होते हुए भी मनोवैज्ञानिक कीमत बदल गई है . इसी अपराध बोध से निपटने के लिए कई कंपनियां अपने विज्ञापन में बताती हैं कि वह आप की खरीदी से मिले रुपयों का एक हिस्सा किसी अच्छे काम में जैसे बच्चों की शिक्षा आदि में लगाएंगे . सीख यह है कि विज्ञापनों के बहकावे में ना आएं कंपनियों का उद्देश्य समाज की सेवा करना नहीं बस आपको अपराध बोध से मुक्त कर आपकी जेब हल्की करना है.

3. *पैसे की कीमत एक सी नहीं होती* .
बिहेवियर इकोनॉमिक्स हमें बताता है  कि  इंसानों के लिए हर पैसे का रंग अलग होता है . तनख्वाह में मिले पैसे किफायत से खर्च किए जाते हैं , जबकि बोनस के मामले में  फिजूलखर्ची चल जाती है  .

4. *नज थ्योरी* (Nudge Theory) -
बिहेवियर इकोनॉमिक्स की नज थ्योरी  कहती है कि लोगों के फैसलों को सिर्फ कानून या सजा का डर दिखाकर नहीं बल्कि 'नज ' यानी कि सुझाव या प्रोत्साहन के जरिए भी बदला जा  सकता  है. मान लीजिए क्रेडिट कार्ड से पैसा चुकाते वक्त हर बार मोबाइल  पर एक संदेश आए कि क्या आप सचमुच में खर्च करना चाहते हैं ? तो आप कुछ कुछ खरीदारी स्थगित कर देंगे. (यह और बात है क्रेडिट कंपनियां कभी ऐसा नहीं करतीं बल्कि वह चाहती हैं कि आप बेवजह खर्च करें, डिफ़ॉल्ट करें ताकि आप पर पैनल्टी लगाकर वे प्रॉफिट कमा सकें) किसी बुफे में लोग वहीं डिश उठाएंगे जो उनके आंखों के ऊंचाई पर रखी हो . नज थ्योरी के मुताबिक यदि किसी फार्म को भरते वक्त आप लोगों से  किसी खास बात के लिए 'हां ' करवाना चाहते हैं तो उनसे पूछने के बजाय पहले आप उनकी 'हां ' को मान लीजिए (डिफ़ॉल्ट चॉइस) और फिर पूछिए यदि आप इस योजना में शामिल 'नहीं' होना चाहें तो बॉक्स में टिक लगाएं .इंसानी स्वभाव है कि वह कुछ नहीं करना चाहता .इस तरह अधिक लोग 'हां' कर बैठेंगे.
इन दिनों सरकारें इस नज का इस्तेमाल  लोगों के बैंक खातों से बीमा की रकम काटने में कर रही हैं. बीमा करवाने के लिए अलग से हां नहीं करवाई जाती .उसे डिफॉल्ट चॉइस मान लिया जाता है. इस तरह के 'नज' के इस्तेमाल को कई लोग गलत भी मानते हैं. यह लोगों की मानवीय कमजोरी का फायदा उठा कर उनके चुनने के अधिकार का हनन करने जैसा है .

*मीडिया में   नोबेल पुरस्कार को लेकर नज थ्योरी की बात है क्यूंकि थेलर को " फादर ऑफ नज थ्योरी" कहा जाता है पर असल मे यह  थ्योरी पुरानी है . इस बार का नोबल रिचर्ड को नज थ्योरी पर नहीं बल्कि एंडोमेंट इफेक्ट ,डिक्टेटर गेम और लॉस ऑफ अवर्शन पर मिला है.*

5. *एंडोमेंट इफेक्ट* .
थेलर अपनी मशहूर थ्योरी एंडोमेंट इफेक्ट के जरिए समझाते हैं कि लोग किसी चीज की कीमत सिर्फ इसलिए ज्यादा आंकते हैं  क्योंकि  वह उनकी है  .इसे समझाने के लिए एक प्रयोग किया गया .लोगों को एक कॉफी का मग दिया गया फिर उनसे कहा गया तो आप इसे चॉकलेट के बदले एक्सचेंज करना पसंद करेंगे ? सभी ने मना किया क्योंकि उन्हें लगा कॉफी मग अधिक कीमती है . अब एक दूसरे समूह को चॉकलेट दिया गया और पूछा आप उसके बदले कॉफी मग लेंगे ?उन्होंने भी मना किया क्योंकि उन्हें चॉकलेट अधिक कीमती लगा . यही वजह है कि लोग अपना पुराना और बेकार सामान नहीं बेच पाते और घरों में कबाड़ इकट्ठा हो जाता है .

6. *डिक्टेटर गेम*
थेलर  की इस   थ्योरी  के मुताबिक इंसान पैसों का बंटवारा इस तरह करते हैं कि उन्हें ज्यादा भी मिल जाए और उन  पर लालची होने का इल्जाम भी ना आए. मान लीजिए आपको दस   हजार रुपये दिए जाएं और अपने एक साथी के साथ बांटने के लिए कहा जाए . सिर्फ आर्थिक दृष्टि से देखें तो या तो आप दोनों को पांच हजार देंगे या फिर पूरे दस   हजार खुद रख लेंगे पर असल में लोग ऐसा नहीं करते . ज्यादातर लोग 7 से 8 हजार रुपए खुद रख लेंगे और दो या तीन हजार  साथी को देंगे ताकि उनका लालच भी पूरा हो जाए और वह खुद अपनी नजरों में भी ना गिरे.

7. *लॉस ऑफ अवर्शन* .
लोग फायदे के लिए नहीं बल्कि नुकसान से बचने के लिए काम करते हैं सौ रुपए कमाने मे जितनी खुशी होती है उस से दो गुना दुख सौ रुपए गंवाने  में होता है .
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