सोमवार, 22 जनवरी 2018

NPS and tax benefits

NPS

Section 80C also provides tax benefits on a retirement planning investment scheme known as NPS. Just like EPF, you get a tax deduction on both yours as well as your employer’s contribution (under Section 80CCD) in NPS. Your funds are also managed at comparatively lower charges as compared to most of the MFs or ULIPs. If you have already exhausted your 80C bracket of Rs 1.5 lakh, you can claim additional deduction of up to Rs. 50K u/s 80CCD(1B) for your contribution in NPS scheme.

To top it, 40% of your maturity corpus is exempt from tax, and the remaining 60% becomes tax-free if invested in an annuity plan.

2018 के लिए वित्तीय युक्तियां

2018 के लिए वित्तीय युक्तियां

1. ऋण पर संपत्ति खरीदने से बचें, क्योंकि यह आपकी अधिकांश कमाई खाती है, जब तक आपके पास पुनर्भुगतान के लिए कोई स्पष्ट योजना नहीं है। कैश फ्लो की निगरानी करना महत्वपूर्ण है हालांकि, यह घर आपकी संपत्ति होगी, आपकी देयता बहुत अधिक होगी।

2. बहुत कम उम्र में एसआईपी शुरू करें। अपनी आय का कम से कम 15-25% बचत करने का प्रयास करें

3. कार खरीदने से बचें, जब तक आप इसे हर रोज नहीं इस्तेमाल करते हैं

4. इस वाक्य को डरा नहीं दें। _म्यूच्यूअल फण्ड निवेश बाज़ार के खतरों के अधीन हैं_। निवेश करने से पहले कृपया दस्तावेजों को ध्यान से पढ़ें। ज्यादातर लोग इस एक चेतावनी के कारण म्युचुअल फंड में निवेश करने से बचते हैं। हां, एक बाजार जोखिम है, लेकिन म्युचुअल फंडों के इतिहास और विकास को देखो।

5. एक साधारण शादी की कोशिश करो।

6. आपके कम से कम 20% धन तरल होना चाहिए ताकि आवश्यक हो जब आप इसे उपयोग कर सकें।

7. मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए, यदि आप बचत बैंक खाते में हैं तो आप वास्तव में पैसे खो रहे हैं। अपने बचत बैंक खाते में भारी धन न रखें।

8. यदि आप शेयरों में निवेश करते हैं, तो ध्यान दें

9. यदि आप शेयरों में निवेश करते हैं तो डिलीवरी निवेश और इन्ट्राडे निवेश के लिए एक अलग खाता है। इस तरह की निगरानी करना आसान है और यह भी कर गणना आसान बनाता है

10. विश्वास नहीं है कि संपत्ति और कार आपको समृद्ध बनाते हैं। आप जो बचाते हैं और निवेश करते हैं, वह महत्वपूर्ण है

11. कभी रिटर्न के लिए बीमा में निवेश न करें बीमा एक निवेश विकल्प नहीं है यह एक जोखिम प्रबंधन उपकरण है

12. भव्य खर्च के लिए कभी भी क्रेडिट कार्ड का उपयोग न करें। क्रेडिट कार्ड का उपयोग बुद्धिमानी से करें और जरूरतों के लिए नहीं।

13. मरने से पहले सभी क्रेडिट कार्ड रद्द करें। या अपने सभी खातों, क्रेडिट कार्ड, ऋण और बचत के बारे में परिवार को सूचित करें, अब स्वयं। यहां तक ​​कि एक छोटे से अवशेष आपके परिवार को ज्यादा खर्च होंगे

14. अपने आप पर निवेश करें और फिर अन्य निवेशों पर।

15. हमेशा अपनी आय को अपनी बचत के साथ पहले संतुलन रखने की कोशिश करें, फिर खर्च और ऋण पर। अनावश्यक ऋण न लें हमेशा भंडार और उनका उपयोग करें और जब तक कोई दूसरा न जाए, ऋण न ले।

16. अपने करियर, जीवन, खर्च और वित्त पर भविष्य की घटनाओं के लिए हमेशा एक योजना बनाएं।

17. आकस्मिक और तत्काल स्थितियों के लिए आपकी बचत पर हमेशा एक आरक्षित रखिए।

18. आपकी व्यक्तिगत जीवन और स्वास्थ्य सबसे महत्वपूर्ण निवेश हैं नियमित स्वास्थ्य की जांच करें और हर दिन स्वस्थ कसरत करें स्वस्थ रहें और खुशी से रहें

19. हमेशा याद रखें कि मृत्यु किसी भी समय हो सकती है ..... तो कृपया यदि आप आश्रित हैं तो पर्याप्त अवधि बीमा खरीद लें।

20. एक * विल * तैयार करें आपके मरने के बाद यह अनावश्यक लड़ाई से बच सकता है

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

Income Tax Rebate on House Rent

*मकान किराया भत्‍ते (एचआरए) पर कर-छूट का प्रावधान,*
*Income Tax Rebate on House Rent*

बड़ी संख्‍या में नौकरीपेशा लोग अपने सैलरी पैकेज के एक हिस्से के रूप में हर माह ही मकान किराया भत्‍ता (एचआरए) हासिल करते हैं। यहां तक कि बड़े-बड़े पदों पर रहने वाले कंपनियों के डायरेक्टर्स भी एचआरए प्राप्त करते हैं, जिससे उन्हें इनकम टैक्स बचाने में मदद मिलती है। आयकर अधिनियम की धारा 10(13ए) और नियम 2ए में मकान किराया भत्‍ते (एचआरए) पर कर-छूट का प्रावधान किया गया है।

*व्याख्या-1*

इसके तहत नियोक्ता द्वारा दिए गए एचआरए पर वह कोई भी आयकरदाता कर-छूट का लाभ हासिल कर सकता है, जो किराये के मकान में रह रहा है। हालांकि इसकी अपनी कुछ सीमाएं भी हैं। अगर कोई कर्मचारी अपने स्वयं के मकान में रह रहा हो तो उसे एचआरए में इनकम टैक्स का लाभ नहीं मिलेगा।

कर-छूट का लाभ प्राप्त करने के लिए रसीद कब जरूरी है।? 
सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेस के अनुसार कर-छूट का लाभ प्राप्त करने के लिए अपने नियोक्ता को किराये की रसीद प्रस्तुत करना तभी अनिवार्य होता है, जब कर्मचारी को प्रति माह तीन हजार रुपए से अधिक का एचआरए मिल रहा हो।

*यह एक बड़ी भ्रांति है कि कर्मचारियों को जितना मकान किराया भत्‍ता (एचआरए) मिलता है, उतना पूरा का पूरा ही इनकम टैक्स में डिडक्ट हो जाता है। ऐसा नहीं है। इसके भी कुछ नियम हैं, जिन्हें समझना जरूरी है।*
क्या हैं नियम ? 

एचआरए पर छूट का लाभ लेने के कुछ नियम हैं। यह छूट उतनी ही राशि पर मिलेगी, जो निम्‍न में से न्यूनतम होगी :

असल मकान किराया भत्‍ता, कुल वेतन की 10 फीसदी राशि को वास्तविक किराये में से घटाने के बाद शेष राशि।

मुंबई, दिल्ली, चैन्नई और कोलकाता में रहने वाले व्यक्ति के वेतन की 50 फीसदी और अन्य शहरों में रहने वाले व्यक्ति के वेतन की 40 फीसदी राशि। (वेतन में बेसिक और डीए भी शामिल रहता है।)

इसे ऐसे समझें 
भोपाल निवासी XYZ का मासिक वेतन 30 हजार रु. है। मासिक एचआरए 6 हजार, मकान का किराया 5 हजार रु.।
वास्तविक एचआरए : 6000 रुपए।
मकान किराये के रूप में संजय 5000 रु. चुका रहा है। कुल वेतन (30,000) की 10 फीसदी राशि यानी 3000 को वास्तविक किराये में से घटाने के बाद शेष राशि आएगी 2000 रुपए।

चूंकि संजय भोपाल में रह रहा है तो उसके कुल वेतन (30,000) का 40 फीसदी 12,000 रुपए होगा।

नियमानुसार इन तीनों में से जो न्यूनतम होगा, उतनी ही राशि की कर में छूट मिलेगी। न्यूनतम राशि 2000 रु. है, यानी XYZ को कर योग्य आय में से 24 हजार रुपए की ही वार्षिक छूट मिलेगी। उसे प्रति माह एचआरए के रूप में 6 हजार रुपए मिलते हैं, अर्थात प्रति माह 4 हजार रुपए या वार्षिक 48 हजार रु. कर योग्य आय में जुड़ जाएंगे।
*पैन नंबर कब जरूरी ?* 

अगर कोई कर्मचारी साल में एक लाख रुपए या उससे अधिक राशि किराये के रूप में दे रहा है तो उसे अपने मकान मालिक के पैन नंबर की जानकारी भी अपने नियोक्ता को देनी होगी। मकान मालिक के पास पैन नंबर नहीं होने पर उसे मकान मालिक से एक डिक्लेरेशन लेकर उसे नियोक्ता को देना होगा। 10 (13 ए) इनकम टैक्स की इस धारा में एचआरए से संबंधित प्रावधान दिए गए हैं।

व्याख्या-2

 मकान किराया भत्ते (HRA) के सम्बन्ध में अक्सर भ्रम की स्थिति रहती है कि इसकी छूट आयकर में मिलेगी या नहीं यदि हाँ तो कितनी? किराये की रसीद प्रस्तुत करनी होगी या नहीं? क्या इसके साथ मकान स्वामी के PAN no. को भी प्रस्तुत करना होगा? इन बिंदुओं का क्रमशः स्पष्टीकरण —

*किसको मिलेगी HRA की कटौती?* —-

यदि कोई व्यक्ति किराये के मकान मेँ रहता है तो उसे HRA की कटौती मिलेगी।

किस सीमा तक मिलेगी HRA की कटौती?
  
निम्न तीन बिंदुओं में से जो राशि सबसे कम होगी वह आयकर मुक्त (income tax free) होगी —-

1- HRA की वास्तविक प्राप्त राशि
2- भुगतान किराया – वेतन का 10%
3- वेतन का 40%
      यहाँ वेतन से आशय — basic salary + D.A. से है।
       उपर्युक्त सभी गणना वार्षिक आधार पर होगी।

*किराये की रसीद  व मकान स्वामी के PAN no. को उपलब्ध कराना कब आवश्यक?* —-

1- यदि प्राप्त HRA की राशि 3000 ₹ से कम व् आपके द्वारा भुगतान की गयी किराए की राशि 8333₹ मासिक से कम है तो न किराये की रसीद और न मकान स्वामी के पैन नं को उपलब्ध करना आवश्यक होता है।( सभी अध्यापक बन्धु सामान्यतः इसी श्रेणी में आते है।)

2- यदि HRA की प्राप्त राशि 3000 ₹ या इससे ज्यादा और भुगतान किये किराये की राशि 8333₹ से कम है तो सिर्फ किराये की रसीद(revenue स्टाम्प सहित) प्रस्तुत करनी होगी पैन नं. नहीं ।

3- यदि प्राप्त HRA और भुगतान किराए की राशि दोनोँ ही क्रमशः 3000₹ व् 8333₹ से अधिक है तो किराये की रसीद व मकान स्वामी के PAN no. दोनोँ को ही उपलब्ध करना होगा।

 नोट— किराया भुगतान की राशि में बिजली या मरम्मत व्यय को सम्मलित नहीं किया जाता है।

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण——

माना mr. X  ब्लाक के किसी स्कूल में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत  है और ललितपुर शहर में 4000 ₹ मासिक किराए के मकान में रहते है। उनका अन्य विवरण निम्न है—

(वार्षिक आधार पर ) 
Basic salary              201720 ₹
D. A.               229162 ₹
HRA (920×12)     11040 ₹

Solution—-निम्न बिंदुओं में जो सबसे कम राशि होगी वह आयकर से मुक्त होगी–
1- HRA की वास्तविक प्राप्त राशि= 11040 ₹

2- किराए की रकम – वेतन का 10%
    4000×12 – (201720+229162)×10%
  48000 – 43088 = 4912 ₹

3- वेतन का 40% 
    430882×10% = 172353 ₹
     
    उपर्युक्त तीनों में सबसे कम राशि 4912 ₹ है जो कि आयकर से मुक्त होगी। अतः प्राप्त HRA की 11040 ₹ की राशि में से 4912 टैक्स से फ्री होंगे व 11040 – 4912 = 6128₹ पर टैक्स लगेगा।
   हाँ, यदि Mr. X को संपूर्ण HRA की राशि आयकर से बचानी है तो उन्हें और अधिक महँगे किराये के मकान में रहना होगा। अर्थात उपरोक्त द्वतीय बिंदु की गणना का अंतर 4912 ₹ की जगह 11040 ₹ न्यूनतम करना होगा।
उपरोक्त केस में Mr. X को न तो किराए की रसीद और न तो मकान स्वामी के PAN no. को उपलब्ध कराना आवश्यक है।

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

ग्रेच्युटी क्या है, कैसे की जाती है कैलकुलेट

ग्रेच्युटी क्या है, कैसे की जाती है कैलकुलेट – सब कुछ जानें
ग्रेच्युटी ऐसी रकम है, जिसके बारे में बहुत नौकरीपेशा लोग बहुत कुछ नहीं जानते, सो आइए, आज हम ग्रेच्युटी से जुड़े आपके सभी सवालों का जवाब लेकर आए
नई दिल्ली: ग्रेच्युटी क्या है...? ग्रेच्युटी कैसे कैलकुलेट की जाती है...? मैं कब ग्रेच्युटी का हकदार बनूंगा...? ग्रेच्युटी के तौर पर मिली कितनी रकम टैक्स-फ्री होगी, और कितनी ग्रेच्युटी पर इनकम टैक्स देना होगा...? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जो लगभग हर नौकरीपेशा इंसान के दिमाग में घूमते रहते हैं... रिटायरमेंट (या नौकरी बदलने पर) पर मिलने वाली इस रकम का इंतज़ार आमतौर पर इसलिए किया जाता है, ताकि तब तक पूरे न हो पाए सपनें पूरे किए जा सकें, या उस रकम के ज़रिये अपने खर्चे चलाने का इंतज़ाम किया जा सके. ग्रेच्युटी ऐसी रकम है, जिसके बारे में बहुत ज़्यादा नौकरीपेशा लोग बहुत कुछ नहीं जानते, और अक्सर अपने साथियों, अपने ऑफिस के एकाउंट्स डिपार्टमेंट या कभी-कभी चार्टर्ड एकाउंटेंटों से भी सवाल करते देखे जाते हैं, सो आइए, आज हम ग्रेच्युटी से जुड़े आपके सभी सवालों का जवाब लेकर आए हैं.
*क्या है ग्रेच्युटी...?
ग्रेच्युटी आपके वेतन, यानी आपकी सैलरी का वह हिस्सा है, जो कंपनी या आपका नियोक्ता, यानी एम्प्लॉयर आपकी सालों की सेवाओं के बदले देता है. ग्रेच्युटी वह लाभकारी योजना है, जो रिटायरमेंट लाभों का हिस्सा है, और नौकरी छोड़ने या खत्म हो जाने पर कर्मचारी को नियोक्ता द्वारा दिया जाता है.
*कब मैं ग्रेच्युटी का हकदार बनूंगा...?
ग्रेच्युटी किसी भी ऐसे कर्मचारी को दी जानी होती है, जो नौकरी में लगातार 4 साल, 10 महीने, 11 दिन तक काम कर चुका हो. ऐसे कर्मचारी की सेवा को पांच साल की अनवरत सेवा माना जाता है, और आमतौर पर पांच साल की सेवाओं के बाद ही कोई भी कर्मचारी ग्रेच्युटी का हकदार बनता है. यानी अगर आप जल्दी-जल्दी, यानी साल-दो-साल में नौकरी बदलने का शौक या आदत रखते हैं, तो ग्रेच्युटी आपके हिस्से कभी नहीं आएगी.
*ग्रेच्युटी कैसे कैलकुलेट की जाती है...?
ग्रेच्युटी कैलकुलेट करने का फॉर्मूला ज़्यादा मुश्किल नहीं है. पांच साल की सेवा के बाद सेवा में पूरे किए गए हर साल के बदले अंतिम महीने के बेसिक वेतन और महंगाई भत्ते को जोड़कर उसे पहले 15 से गुणा किया जाता है, फिर सेवा में दिए गए सालों की संख्या से, और इसके बाद हासिल होने वाली रकम को 26 से भाग दे दिया जाता है, और वही आपकी ग्रेच्युटी है. यानी फॉर्मूला हुआ...
[(अंतिम माह का बेसिक वेतन + महंगाई भत्ता) x 15 x सेवा में दिए गए साल] / 26
मान लीजिए, आपने किसी संस्थान में 21 साल 11 महीने नौकरी की है, और आपकी अंतिम बेसिक सैलरी 22,000 रुपये थी, जिस पर आपको 24,000 रुपये महंगाई भत्ता मिलता था... सबसे पहले यह समझिए, यहां आपकी नौकरी 22 साल की मानी जाएगी... इसके बाद आप 22,000 और 24,000 की रकमों को जोड़ेंगे, जिनसे आपके पास 46,000 की रकम आएगी. इस रकम को 15 से गुणा करने पर 6,90,000 मिलेगा. फिर इस रकम को आपको अपनी सेवा के साल, यानी 22 से गुणा करना होगा, और अब आपको 1,51,80,000 की रकम हासिल होगी. अब अंत में इस रकम को आप 26 से भाग देंगे, तो आपको मिलेगा 5,83,846, और बस, यही आपकी ग्रेच्युटी है.
*ग्रेच्युटी का कितना हिस्सा टैक्स-फ्री है...?
अगर आपकी ग्रेच्युटी ऊपर बताए गए फॉर्मूले से ही कैलकुलेट की गई है, और आपके एम्प्लॉयर ने आपको अपनी तरफ से कोई रकम उपहार में नहीं दी है, तो 20,00,000 रुपये, यानी 20 लाख रुपये तक की ग्रेच्युटी के तौर पर मिलने वाली पूरी रकम टैक्स-फ्री होगी, यानी उस पर आपको किसी भी तरह का कोई टैक्स नहीं देना होगा.

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

बिहेवियरल इकोनॉमिक्स

*क्या बला है बिहेवियरल इकोनॉमिक्स !!*

पैसों के मामले में लोग सिर्फ दिमाग से फैसले नहीं लेते. अक्सर इंसानी जज्बात दिमाग पर हावी हो जाते हैं , इसलिए आर्थिक मामलों को समझने के लिए अर्थशास्त्र के साथ मनोविज्ञान को समझने की भी जरूरत है .यही बिहेवियरल इकोनॉमिक्स कहलाता है ,जिसके लिए इस साल *रिचर्ड  एच थेलर  को नोबेल पुरस्कार दिया गया है*

पैसे के साथ इंसान का रिश्ता उलझा हुआ है.  लालच,  भविष्य का डर और खर्च करने से पैदा होने वाला अपराधबोध ऐसे जज्बात हैं जो इस उलझन को और बढ़ाते हैं  .बिहेवियरल इकोनॉमिक्स के जरिए हम पैसे से जुड़ी आदतों को समझने की कोशिश करते हैं इनमे से कुछ आदतों के बारे में आप भी जानिए.

1. *'पेन ऑफ  पेइंग'*.
विद्वान मानते हैं कि पैसे को जब हम अपनी जेब से जुदा करते हैं ,तो हमें  तकलीफ होती है .यह तकलीफ तब ज्यादा होती है ,जब हम नोटों की शक्ल में पैसा दे रहे हों.क्रेडिट कार्ड या उधार माल खरीदते वक्त यह तकलीफ कम हो जाती है. यही कारण है किस्तों में उधार सामान खरीदते या क्रेडिट कार्ड के जरिए खर्च करते  वक्त लोग कई बार गैर जरूरी चीजें खरीद लेते हैं . मतलब कि यदि  टाइम ऑफ पेमेंट और टाइम आप परचेस को अलग कर दिया जाए  तो यह तकलीफ कम हो जाती है . इंसानी स्वभाव की इसी कमजोरी का फायदा उठाकर कंपनियां, 'अभी खरीदो बाद चुकाओ' का लालच देती हैं . तो यदि आप अपने खर्च को कंट्रोल करना चाहते हैं तो क्रेडिट कार्ड का उपयोग ना करें और जिस वक्त जो सामान खरीदें उसी समय उसका पेमेंट करें.

2. *खर्च से जुड़ा अपराधबोध* -
पैसा खर्च करना अपराधबोध लाता है .कई लोग सक्षम होते हुए भी पैसा खर्च नहीं कर पाते क्योंकि उनका दिमाग खर्च को लेकर ज्यादा अपराधबोध महसूस करता है . मान लीजिए किसी महिला को एक साड़ी पसंद आती है ,पर उसे लगता है दुकानदार उसकी कुछ ज्यादा कीमत बता रहा है . वह उसे नहीं खरीदती . उसका पति यह देख कर अगले दिन वही साड़ी खरीद लाता है और उसे तोहफे में देता है  .सिर्फ आर्थिक दृष्टि से समझे तो पत्नी को नाराज होना चाहिए क्योंकि साड़ी असल कीमत से ऊंचे दाम पर खरीदी गई है और इस तरह नुकसान हुआ है. लेकिन वह खुश हो जाती है .साड़ी की कीमत रुपयों में उतनी ही है लेकिन किसी दूसरे के द्वारा लाए जाने की वजह से पेन  आफ पेइंग  महसूस नहीं हो रहा है .और इसलिए आर्थिक कीमत वही होते हुए भी मनोवैज्ञानिक कीमत बदल गई है . इसी अपराध बोध से निपटने के लिए कई कंपनियां अपने विज्ञापन में बताती हैं कि वह आप की खरीदी से मिले रुपयों का एक हिस्सा किसी अच्छे काम में जैसे बच्चों की शिक्षा आदि में लगाएंगे . सीख यह है कि विज्ञापनों के बहकावे में ना आएं कंपनियों का उद्देश्य समाज की सेवा करना नहीं बस आपको अपराध बोध से मुक्त कर आपकी जेब हल्की करना है.

3. *पैसे की कीमत एक सी नहीं होती* .
बिहेवियर इकोनॉमिक्स हमें बताता है  कि  इंसानों के लिए हर पैसे का रंग अलग होता है . तनख्वाह में मिले पैसे किफायत से खर्च किए जाते हैं , जबकि बोनस के मामले में  फिजूलखर्ची चल जाती है  .

4. *नज थ्योरी* (Nudge Theory) -
बिहेवियर इकोनॉमिक्स की नज थ्योरी  कहती है कि लोगों के फैसलों को सिर्फ कानून या सजा का डर दिखाकर नहीं बल्कि 'नज ' यानी कि सुझाव या प्रोत्साहन के जरिए भी बदला जा  सकता  है. मान लीजिए क्रेडिट कार्ड से पैसा चुकाते वक्त हर बार मोबाइल  पर एक संदेश आए कि क्या आप सचमुच में खर्च करना चाहते हैं ? तो आप कुछ कुछ खरीदारी स्थगित कर देंगे. (यह और बात है क्रेडिट कंपनियां कभी ऐसा नहीं करतीं बल्कि वह चाहती हैं कि आप बेवजह खर्च करें, डिफ़ॉल्ट करें ताकि आप पर पैनल्टी लगाकर वे प्रॉफिट कमा सकें) किसी बुफे में लोग वहीं डिश उठाएंगे जो उनके आंखों के ऊंचाई पर रखी हो . नज थ्योरी के मुताबिक यदि किसी फार्म को भरते वक्त आप लोगों से  किसी खास बात के लिए 'हां ' करवाना चाहते हैं तो उनसे पूछने के बजाय पहले आप उनकी 'हां ' को मान लीजिए (डिफ़ॉल्ट चॉइस) और फिर पूछिए यदि आप इस योजना में शामिल 'नहीं' होना चाहें तो बॉक्स में टिक लगाएं .इंसानी स्वभाव है कि वह कुछ नहीं करना चाहता .इस तरह अधिक लोग 'हां' कर बैठेंगे.
इन दिनों सरकारें इस नज का इस्तेमाल  लोगों के बैंक खातों से बीमा की रकम काटने में कर रही हैं. बीमा करवाने के लिए अलग से हां नहीं करवाई जाती .उसे डिफॉल्ट चॉइस मान लिया जाता है. इस तरह के 'नज' के इस्तेमाल को कई लोग गलत भी मानते हैं. यह लोगों की मानवीय कमजोरी का फायदा उठा कर उनके चुनने के अधिकार का हनन करने जैसा है .

*मीडिया में   नोबेल पुरस्कार को लेकर नज थ्योरी की बात है क्यूंकि थेलर को " फादर ऑफ नज थ्योरी" कहा जाता है पर असल मे यह  थ्योरी पुरानी है . इस बार का नोबल रिचर्ड को नज थ्योरी पर नहीं बल्कि एंडोमेंट इफेक्ट ,डिक्टेटर गेम और लॉस ऑफ अवर्शन पर मिला है.*

5. *एंडोमेंट इफेक्ट* .
थेलर अपनी मशहूर थ्योरी एंडोमेंट इफेक्ट के जरिए समझाते हैं कि लोग किसी चीज की कीमत सिर्फ इसलिए ज्यादा आंकते हैं  क्योंकि  वह उनकी है  .इसे समझाने के लिए एक प्रयोग किया गया .लोगों को एक कॉफी का मग दिया गया फिर उनसे कहा गया तो आप इसे चॉकलेट के बदले एक्सचेंज करना पसंद करेंगे ? सभी ने मना किया क्योंकि उन्हें लगा कॉफी मग अधिक कीमती है . अब एक दूसरे समूह को चॉकलेट दिया गया और पूछा आप उसके बदले कॉफी मग लेंगे ?उन्होंने भी मना किया क्योंकि उन्हें चॉकलेट अधिक कीमती लगा . यही वजह है कि लोग अपना पुराना और बेकार सामान नहीं बेच पाते और घरों में कबाड़ इकट्ठा हो जाता है .

6. *डिक्टेटर गेम*
थेलर  की इस   थ्योरी  के मुताबिक इंसान पैसों का बंटवारा इस तरह करते हैं कि उन्हें ज्यादा भी मिल जाए और उन  पर लालची होने का इल्जाम भी ना आए. मान लीजिए आपको दस   हजार रुपये दिए जाएं और अपने एक साथी के साथ बांटने के लिए कहा जाए . सिर्फ आर्थिक दृष्टि से देखें तो या तो आप दोनों को पांच हजार देंगे या फिर पूरे दस   हजार खुद रख लेंगे पर असल में लोग ऐसा नहीं करते . ज्यादातर लोग 7 से 8 हजार रुपए खुद रख लेंगे और दो या तीन हजार  साथी को देंगे ताकि उनका लालच भी पूरा हो जाए और वह खुद अपनी नजरों में भी ना गिरे.

7. *लॉस ऑफ अवर्शन* .
लोग फायदे के लिए नहीं बल्कि नुकसान से बचने के लिए काम करते हैं सौ रुपए कमाने मे जितनी खुशी होती है उस से दो गुना दुख सौ रुपए गंवाने  में होता है .
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गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

Teacher's transfer form- Govt of Rajasthan

Govt of Rajasthan
Teacher's transfer form



*विधायक अनुशंसा से होने वाले स्थानान्तरण हेतु आवेदन पत्र* ⬇⬇

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

Essay on Dr radhakrishnan सर्वपल्ली राधाकृष्णन

शिक्षक दिवस विशे

जीवन परिचय -सर्वपल्ली राधाकृष्णन

सर्वपल्ली राधाकृष्णन (जन्म: 5 सितंबर 1888; मृत्यु: 17 अप्रैल, 1975) स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति थे। इन्होंने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की गौरवशाली परम्परा को आगे बढ़ाया। इनका कार्यकाल 13 मई, 1962 से 13 मई, 1967 तक रहा। इनका नाम भारत के महान् राष्ट्रपतियों की प्रथम पंक्ति में सम्मिलित है। इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र इनका सदैव ॠणी रहेगा। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, 5 सितंबर 1888 को हुआ था। इनका जन्मदिवस 5 सितंबर आज भी पूरा राष्ट्र 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाता है। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के ज्ञानी, एक महान् शिक्षाविद, महान् दार्शनिक, महान् वक्ता होने के साथ ही साथ विज्ञानी हिन्दू विचारक थे। डॉक्टर राधाकृष्णन ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किए थे। वह एक आदर्श शिक्षक थे।

जन्म

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, जो मद्रास ,अब चेन्नई से लगभग 64 कि॰ मी॰ की दूरी पर स्थित है, 5 सितंबर 1888 को हुआ था। यह एक ब्राह्मण परिवार से संबंधित थे। इनका जन्म स्थान एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है।[1] डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के पुरखे पहले 'सर्वपल्ली' नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरूतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन इनके पुरखे चाहते थे कि उनके नाम के साथ उनके जन्मस्थल के ग्राम का बोध भी सदैव रहना चाहिए। इसी कारण इनके परिजन अपने नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने लगे थे।

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ग़रीब किन्तु विद्वान ब्राह्मण की दूसरी संतान के रूप में पैदा हुए। इनके पिता का नाम 'सर्वपल्ली वीरास्वामी' और माता का नाम 'सीताम्मा' था। इनके पिता राजस्व विभाग में वैकल्पिक कार्यालय में काम करते थे। इन पर बड़े परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था। इनके पाँच पुत्र तथा एक पुत्री थी। राधाकृष्णन का स्थान इन संततियों में दूसरा था। इनके पिता काफ़ी कठिनाई के साथ परिवार का निर्वहन कर रहे थे। इस कारण बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई विशेष सुख नहीं प्राप्त हुआ।

विद्यार्थी जीवन

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का बाल्यकाल तिरूतनी एवं तिरूपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ। इन्होंने प्रथम आठ वर्ष तिरूतनी में ही गुजारे। यद्यपि इनके पिता पुराने विचारों के इंसान थे और उनमें धार्मिक भावनाएं भी थीं, इसके बावजूद उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिए भेजा। फिर अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की शिक्षा वेल्लूर में हुई। इसके बाद इन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की। वह बचपन से ही मेधावी थे।

इन 12 वर्षों के अध्ययन काल में डॉक्टर राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्त्वपूर्ण अंश भी याद कर लिए। इसके लिए इन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। इस उम्र में इन्होंने वीर सावरकर और स्वामी विवेकानन्द का भी अध्ययन किया। इन्होंने 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और इन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। इसके बाद इन्होंने 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इन्हें मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता की टिप्पणी भी उच्च प्राप्तांकों के कारण मिली। इसके अलावा क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने इन्हें छात्रवृत्ति भी दी। उन्होंने दर्शन शास्त्र में एम.ए. किया और सन् 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। वह प्राध्यापक भी रहे। डॉ. राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। सारे विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा की गई।

दाम्पत्य जीवन

उस समय मद्रास के ब्राह्मण परिवारों में कम उम्र में ही शादी सम्पन्न हो जाती थी और राधाकृष्णन भी उसके उपवाद नहीं रहे। 1903 में 16 वर्ष की आयु में ही उनके विवाह दूर के रिश्ते की बहन 'सिवाकामू' के साथ सम्पन्न हो गया। उस समय उनकी पत्नी की आयु मात्र 10 वर्ष की थी। अतः तीन वर्ष बाद उनकी पत्नी ने उनके साथ में रहना आरम्भ कर दिया। यद्यपि उनकी पत्नी सिवाकामू ने परम्परागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन उनका तेलुगु भाषा पर अच्छा अधिकार था। वह अंग्रेज़ी भाषा भी लिख-पढ़ सकती थीं। 1908 में राधाकृष्णन दम्पति को संतान के रूप में पुत्री की प्राप्ति हुई। 1908 में ही उन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और दर्शन शास्त्र में विशिष्ट योग्यता प्राप्त की। शादी के 6 वर्ष बाद ही 1909 में इन्होंने कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। इनका विषय दर्शन शास्त्र ही रहा। उच्च अध्ययन के दौरान वह अपनी निजी आमदनी के लिए बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करते रहे। 1908 में इन्होंने एम. ए. की उपाधि प्राप्त करने के लिए एक शोध लेखन किया। इस समय इनकी आयु मात्र बीस वर्ष की थी। इससे शास्त्रों के प्रति इनकी ज्ञान-पिपासा बढ़ी। शीघ्र ही इन्होंने वेदों और उपनिषदों का भी गहन अध्ययन कर लिया। इन्होंने हिन्दी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक अध्ययन किया।

पत्नी का देहांत

डॉक्टर राधाकृष्णन को बचपन से ही पुस्तकों से प्रेम था। इस कारण तभी स्पष्ट हो गया था कि यह बालक बड़ा होकर विद्वत्ता एवं महानता का वरण अवश्य करेगा। उनका स्वभाव संकोची था, अतः वह घर के सामाजिक समारोहों में उत्साह एवं उल्लास का अनुभव नहीं करते थे। यह इनके परिवार के गहरे संस्कारों का ही प्रभाव रहा कि जीवन भर शाकाहारी रहे। इन्होंने कभी भी धूम्रपान अथवा मद्यपान नहीं किया। परिवार में प्रथम पुत्री पैदा होने के बाद अगले पन्द्रह वर्षों में राधाकृष्णन दम्पति को छह अन्य सन्तानें हुई। इस दौरान इनकी पत्नी का जीवन परिवार तथा पति के लिए पूर्णतया समर्पित रहा। लेकिन 26 नवम्बर, 1956 को इनकी पत्नी का देहांत हो गया। इस प्रकार 53 वर्ष तक साथ निभाने वाली जीवन-संगिनी का इन्हें विछोह भी सहन करना पड़ा। पत्नी की अन्तिम क्रिया सम्पन्न करने के बाद जब वह लौटे तो उन्होंने एक टिप्पणी की- एक लम्बे अध्याय का अंत हो गया। जीवन के नाज़ुक रिश्तों को भी उन्होंने दर्शन शास्त्र की परिभाषाओं के अनुसार अनुभूत किया था।

हिन्दूवादिता का गहरा अध्ययन

शिक्षा का प्रभाव जहाँ प्रत्येक इन्सान पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता भी अपना प्रभाव छोड़ती है। क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों में गहरे तक स्थापित किया जाता था। यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च गुण समाहित हो गए। लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया जो कि क्रिश्चियन संस्थाओं के कारण ही था। कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनकी आलोचना करते थे। उनकी आलोचना को डॉक्टर राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दूवादिता का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है। तब स्वाभाविक अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना आरम्भ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले ग़रीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे। इस कारण राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय आध्यात्म काफ़ी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएँ निराधार हैं। इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को जीवन का सच्चा संदेश देती है।

भारतीय संस्कृति

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह जान लिया था कि जीवन छोटा है और इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिए। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो कि अमीर-ग़रीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी भी प्रकार का वर्ग-विभेद नहीं करती है। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण संतोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असंतोष का निवास है। एक शांत मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों से जो संसदों एवं दरबारों में सुनाई देती हैं। इस कारण डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वह मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। इसीलिए कहा गया है कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएँ अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं। इस कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफ़ी नज़दीक हो गए।

जीवन दर्शन

डॉक्टर राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि 'मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शांति की स्थापना का प्रयत्न हो।' डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से पूर्ण व्याख्याओं, आनंददायक अभिव्यक्ति और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय बना देते थे।

व्यावसायिक जीवन

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, इंदिरा गाँधी एवं कुमारास्वामी कामराज

21 वर्ष की उम्र अर्थात 1909 में राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर दर्शन शास्त्र पढ़ाना आरम्भ किया। यह उनका परम सौभाग्य था कि उनको अपनी प्रकृति के अनुकूल आजीविका प्राप्त हुई थी। यहाँ उन्होंने 7 वर्ष तक न केवल अध्यापन कार्य किया बल्कि स्वयं भी भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म का गहराई से अध्ययन किया। उन दिनों व्याख्याता के लिए यह आवश्यक था कि अध्यापन हेतु वह शिक्षण का प्रशिक्षण भी प्राप्त करे। इस कारण 1910 में राधाकृष्णन ने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में लेना आरम्भ कर दिया। इस समय इनका वेतन मात्र 37 रुपये था। दर्शन शास्त्र विभाग के तत्कालीन प्रोफ़ेसर राधाकृष्णन के दर्शन शास्त्रीय ज्ञान से काफ़ी अभिभूत हुए। उन्होंने उन्हें दर्शन शास्त्र की कक्षाओं से अनुपस्थित रहने की अनुमति प्रदान कर दी। लेकिन इसके बदले में यह शर्त रखी कि वह उनके स्थान पर दर्शन शास्त्र की कक्षाओं में पढ़ा दें। तब राधाकृष्ण ने अपने कक्षा साथियों को तेरह ऐसे प्रभावशाली व्याख्यान दिए, जिनसे वह शिक्षार्थी चकित रह गए। इनकी विषय पर गहरी पकड़ थी, दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध में इनका दृष्टिकोण स्पष्ट था और इन्होंने उपयुक्त शब्दों का चयन भी किया था। 1912 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की 'मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व' शीर्षक से प्रकाशित हुई जो कक्षा में दिए गए उनके व्याख्यानों का संग्रह था। इस पुस्तक के द्वारा इनकी यह योग्यता प्रमाणित हुई कि प्रत्येक पद की व्याख्या करने के लिए इनके पास शब्दों का अतुल भण्डार था और स्मरण शक्ति भी अत्यन्त विलक्षण थी।

प्रथम भेंट

राधाकृष्णन की महात्मा गांधी से प्रथम भेंट 1915 में हुई थी। उनके विचारों से प्रभावित होकर राधाकृष्णन ने राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थन में लेख भी लिखे। वह कभी भी किसी पार्टी से नहीं जुड़े, लेकिन निर्भय होकर राष्ट्रप्रेम को अभिव्यक्त करते थे। बाद में इन्होंने गांधी जी को अभिव्यक्त करते हुए कहा था – "मनुष्य के सर्वोत्तम प्रयासों में गांधी जी की आवाज़ सदैव अनश्वर रहेगी और संसार के सभी मानवों में श्रेष्तम भी होगी।" यहाँ पर आवाज़ का आशय गांधी जी की समग्र सोच से किया गया था। यद्यपि राधाकृष्णन ब्रिटिश सरकार की नौकरी कर रहे थे, तथापि देश की स्वतंत्रता के लिए वह ख़्वाहिशमंद थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उन्होंने अंग्रेज़ों से यह आशा रखी थी कि वे देश को स्वतंत्र कर देंगे। वह अंग्रेज़ों से यह आश्वासन भी चाहते थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वे भारत को ग़ुलामी से मुक्त कर देंगे।

स्थानान्तरण

1916 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का स्थानान्तरण अनन्तपुर हो गया। यहाँ यह छह माह तक रहे। इसके बाद पुनः प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर के रूप में लौटे। 1972 में वह दर्शन शास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप में 'कन्फर्म' किए गए और इनका स्थानान्तरण राजामुन्द्री में कर दिया गया। यहाँ पर इनके अध्यापन को काफ़ी प्रसिद्ध पाप्त हुई। इन्होंने दर्शन शास्त्र जैसे बोझिल विषय को मनोरंजन का स्वरूप प्रदान कर अपने छात्रों को मित्र की तरह पढ़ाया। वह प्रत्येक छात्र को एक विशिष्ट उपनाम से पुकारते थे। राधाकृष्णन ने अपने शिक्षार्थियों की अधिकतम मदद की। यही कारण है कि शिक्षार्थी उनका हृदय से आदर करते थे। 1918 में वह 'न्यू मैसूर यूनिवर्सिटी' में 'एडीशनल प्रोफ़ेसर' की हैसियत से नियुक्त हुए और वहाँ पर 13 वर्षों (1921) तक अध्यापन कार्य किया।

रवीन्द्रनाथ टैगोर से भेंट

दर्शन शास्त्र के मर्मज्ञ के तौर पर डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पहचान क़ायम हो चुकी थी। जुलाई, 1918 में मैसूर प्रवास के समय उनकी भेंट रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई। इस मुलाकात के बाद वह टैगोर से काफ़ी अभिभूत हुए। उनके विचारों की अभिव्यक्ति हेतु डॉक्टर राधाकृष्णन ने 1918 में 'रवीन्द्रनाथ टैगोर का दर्शन' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जो 'मैकमिलन प्रकाशन' द्वारा प्रकाशित हुई। इसके बाद उन्होंने दूसरी पुस्तक 'द रीन आफ रिलीजन इन कंटेंपॅररी फिलॉस्फी' लिखी। इस पुस्तक ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी। इस पुस्तक को भारत के शिक्षार्थियों ने 'आत्मतत्त्व ज्ञान' की पुस्तक के रूप में स्वीकार किया। यही नहीं, इसे इंग्लैण्ड तथा अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भी बेहद पसन्द किया गया। एक बार मैसूर में इनके शिक्षार्थियों ने इनसे पूछा था-क्या आप उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाना पसन्द करेंगे? तब इनका प्रेरक जवाब था - नहीं, लेकिन वहाँ शिक्षा प्रदान करने के लिए अवश्य ही जाना चाहूँगा।

मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध

विद्यार्थियों के साथ राधाकृष्णन के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहते थे। जब वह अपने आवास पर शैक्षिक गतिविधियों का संचालन करते थे, तो घर पर आने वाले विद्यार्थियों का स्वागत हाथ मिलाकर करते थे। वह उन्हें पढ़ाई के दौरान स्वयं ही चाय देते थे और साथी की भाँति उन्हें घर के द्वार तक छोड़ने भी जाते थे। राधाकृष्णन में प्रोफेसर होने का रंचमात्र भी अहंकार नहीं था। उनका मानना था कि जब गुरु और शिष्य के मध्य संकोच की दूरी न हो तो अध्यापन का कार्य अधिक श्रेष्ठतापूर्वक किया जा सकता है। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के ऐसे मैत्री सम्बन्धों के कारण एक मिसाल भी क़ायम हुई, जो कि बहुत ही अनोखी थी। दरअसल जब उनको कलकत्ता में स्थानान्तरित होना था, तब विदाई का कोई भी कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया। इसके लिए उन्होंने मना कर दिया। इनके विद्यार्थियों ने बग्घी के द्वारा इन्हें स्टेशन तक पहुँचाया था। इस बग्घी में घोड़े नहीं जुते थे, बल्कि विद्यार्थियों के द्वारा ही उस बग्घी को खींचकर रेलवे स्टेशन तक ले जाया गया। उनकी विदाई के समय मैसूर स्टेशन का प्लेटफार्म 'सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जय हो' के नारों से गूँज उठा था। वहाँ पर मौजूद लोगों की आँखों में अश्रु थे। राधाकृष्णन भी उस अदभुत प्रेम के वशीभूत होकर अपने आँसू रोक नहीं पाए थे। गुरु एवं विद्यार्थियों का ऐसा सम्बन्ध वर्तमान युग में कम ही देखने को प्राप्त होता है।

आलोचनाओं का सामना

इसके बाद डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कोलकाता में 1921 से 1931 तक समय व्यतीत किया। इन्हें कोलकाता के 'किंग जॉर्ज पंचम विश्वविद्यालय' में मानसिक एवं नैतिक दर्शन शास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त किया गया। इस दौरान उन्होंने भारत की शैक्षिक सेवा में अभिवृद्धि करने का भी कार्य किया। यहाँ पर वह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सम्पर्क में भी रहे। टैगोर के विचारों का काफ़ी प्रभाव राधाकृष्णन पर पड़ा। कलकत्ता विश्वविद्यालय के सभी संगठनों और विभागों को उन्नत करने के लिए इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। यूरोप के विद्वान भी इनके दर्शन शास्त्रीय विचारों से काफ़ी प्रभावित हुए। इनके विचारों में विषय की स्पष्टता होती थी। यह सम्बोधन में क्लिष्टता का समावेश नहीं करते थे। इनकी भाषा में विद्यार्जित विद्वत्ता का ऐसा चमत्कार होता था कि श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनता रह जाता था। लेकिन वर्तमान युग में आलोचना तो संसार के रचयिता की भी होती है। इस कारण डॉक्टर राधाकृष्णन को भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। इनके आलोचकों का कहना था कि राधाकृष्णन ने दर्शन शास्त्र को नया कुछ भी नहीं दिया है, भारत के आध्यात्मिक दर्शन की प्राचीनता को ही उजागर किया है। पश्चिम के सम्मुख उन्होंने भारतीय आध्यात्म को मात्र अंग्रेज़ी भाषा में उदधृत करने का ही कार्य किया है, लेकिन राधाकृष्णन ने अपने आलोचकों को कभी भी स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता महसूस नहीं की। इसके बाद इनका एक लेख 'एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका' के 14वें संस्करण में प्रकाशित हुआ जो एक बड़ी उपलब्धि थी।

राजनीतिक जीवन

यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतंत्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वह 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इस समय यह विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किए गए। अखिल भारतीय कांग्रेसजन यह चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जाएं। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 - 15 अगस्त, 1947 की रात्रि को किया जाए, जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वह अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। उसके पश्चात संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।

राजनयिक कार्य

सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऐसा किया और ठीक रात्रि 12 बजे अपने सम्बोधन को विराम दिया। पंडित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी अन्य को इसकी जानकारी नहीं थी। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिए विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पंडित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शन शास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह संदेह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वह बेहतरीन थे। वह एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मंत्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वह उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि उसके बाद उनके शयन का समय हो जाता था। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तब वह नियमों के दायरों में नहीं बंधे थे। कक्षा में यह 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व ही चले जाते थे। इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो व्याख्यान देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में सम्पन्न हो जाता था। इसके उपरान्त भी यह विद्यार्थियों के प्रिय एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे।

सोवियत संघ से विदा

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को स्टालिन से भेंट करने का दुर्लभ अवसर दो बार प्राप्त हुआ। 14 जनवरी, 1945 के दिन वह पहला अवसर आया, जब स्टालिन के निमंत्रण पर वह उनसे मिले। स्टालिन के हृदय में 'फिलास्फर राजदूत' के प्रति गहरा सम्मान था। इनकी दूसरी मुलाकात 5 अप्रैल, 1952 को हुई। जब भारतीय राजदूत सोवियत संघ से विदा होने वाले थे। विदा होते समय राधाकृष्णन ने स्टालिन के सिर और पीठ पर हाथ रखा। तब स्टालिन ने कहा था – तुम पहले व्यक्ति हो, जिसने मेरे साथ एक इंसान के रूप में व्यवहार किया हैं और मुझे अमानव अथवा दैत्य नहीं समझा है। तुम्हारे जाने से मैं दु:ख का अनुभव कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम दीर्घायु हो। मैं ज़्यादा नहीं जीना चाहता हूँ। इस समय स्टालिन की आँखों में नमी थी। फिर छह माह बाद ही स्टालिन की मृत्यु हो गई।

उपराष्ट्रपति

1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। सन् 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाए गए। बाद में पंडित नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिए काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं। सितंबर, 1952 में इन्होंने यूरोप और मिडिल ईस्ट देशों की यात्रा की ताकि नए राष्ट्र हेतु मित्र राष्ट्रों का सहयोग मिल सके।

यात्राएँ

1956 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पत्नी का देहान्त हो गया। तब एक पुत्र और पांच पुत्रियों का दायित्व इन पर आ गया। इन ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए 1957 में यह दूसरी बार भी उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इस कार्यकाल के दौरान राधाकृष्णन ने चीन, मंगोलिया, हांगकांग और इंग्लैण्ड की यात्राएँ कीं। 1961 में इन्हें जर्मनी के पुस्तक प्रकाशन द्वारा दिया जाने वाला 'विश्व शान्ति पुरस्कार' भी प्राप्त हुआ। इस दौरान इन्होंने राज्यसभा का संचालन काफ़ी कुशलता के साथ किया। तब पंडित पंत को कहना पड़ा - राज्यसभा इनके हाथों का खिलौना मात्र है।

महत्त्वपूर्ण पद

डॉ. राधाकृष्णन ने अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वे पेरिस में यूनेस्को नामक संस्था की कार्यसमि‍ति के अध्यक्ष भी रहे। यह संस्था 'संयुक्त राष्ट्र संघ' का एक अंग है और पूरे विश्व के लोगों की भलाई के लिए अनेक कार्य करती है।डॉ. राधाकृष्णन सन् 1949 से सन् 1952 तक रूस की राजधानी मास्को में भारत के राजदूत पद पर रहे। भारत रूस की मित्रता बढ़ाने में उनका भारी योगदान रहा था।

शिक्षक दिवस

सर्वपल्ली राधाकृष्णन के सम्मान में डाक टिकट

 मुख्य लेख : शिक्षक दिवस

हमारे देश में डॉक्टर राधाकृष्णन के जन्मदिन 5 सितंबर को प्रतिवर्ष 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार प्रदान किया जाता है। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी देश के राष्ट्रपति बने। इससे यह साबित होता है कि यदि व्यक्ति अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ कार्य करे तो भी दूसरे क्षेत्र उसकी प्रतिभा से अप्रभावित नहीं रहते। डॉक्टर राधाकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी होने के साथ ही देश की संस्कृति को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। उन्हें एक बेहतरीन शिक्षक, दार्शनिक, देशभक्त और निष्पक्ष एवं कुशल राष्ट्रपति के रूप में यह देश सदैव याद रखेगा। राष्ट्रपति बनने के बाद कुछ शिष्य और प्रशंसक उनके पास गए और उन्होंने निवेदन किया था कि वे उनका जन्मदिन 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाना चाहते हैं। डॉक्टर राधाकृष्णन ने कहा, 'मेरा जन्मदिन 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाने के आपके निश्चय से मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करूँगा।' तभी से 5 सितंबर देश भर में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। सन् 1967 तक राष्ट्रपति के रूप में वह देश की सेवा करते रहे। एक बार विख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा था- राजाओं का दार्शनिक होना चाहिए और दार्शनिकों को राजा। प्लेटो के इस कथन को 1962 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने तब सच कर दिखाया, जब वह भारत के दूसरे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इस प्रकार एक दार्शनिक ने राजा की हैसियत प्राप्त की। 13 मई, 1962 को 31 तोपों की सलामी के साथ ही इनकी राष्ट्रपति के पद पर ताजपोशी हुई। इस संदर्भ में भारत सरकार के द्वारा गजट में एक अधिसूचना प्रकाशित हुई, जो विशिष्ट भाग द्वितीय, वर्ग 3 उपसर्ग द्वितीय दिनांक 17 मई, 1962 की एस. ओ. संख्या 1858 के अंतर्गत थी। बर्टेड रसेल जो विश्व के जाने-माने दार्शनिक थे, वह राधाकृष्णन के राष्ट्रपति बनने पर अपनी प्रतिक्रिया को रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा था – यह विश्व के दर्शन शास्त्र का सम्मान है कि महान् भारतीय गणराज्य ने डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राष्ट्रपति के रूप में चुना और एक दार्शनिक होने के नाते मैं विशेषत: खुश हूँ। प्लेटो ने कहा था कि दार्शनिकों को राजा होना चाहिए और महान् भारतीय गणराज्य ने एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाकर प्लेटो को सच्ची श्रृद्धांजलि अर्पित की है।

1962 में ग्रीस के राजा ने जब भारत का राजनयिक दौरा किया तो डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उनका स्वागत करते हुए कहा था – महाराज, आप ग्रीस के पहले राजा हैं, जो कि भारत में अतिथि की तरह आए हैं। अलेक्जेण्डर यहाँ अनिमंत्रित मेहमान बनकर आए थे।[2]

घोषणा

राष्ट्रपति बनने के बाद राधाकृष्णन ने भी पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की भाँति स्वैच्छिक आधार पर राष्ट्रपति के वेतन से कटौती कराई थी। उन्होंने घोषणा की कि सप्ताह में दो दिन कोई भी व्यक्ति उनसे बिना पूर्व अनुमति के मिल सकता है। इस प्रकार राष्ट्रपति भवन को उन्होंने सर्वहारा वर्ग के लिए खोल दिया। राष्ट्रपति बनने के बाद वह ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, इंग्लैण्ड, अमेरिका, नेपाल, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया तथा आयरलैण्ड भी गए। वह अमेरिका के राष्ट्रपति भवन 'व्हाइट हाउस' में हेलीकॉप्टर से अतिथि के रूप में पहुँचे थे। इससे पूर्व विश्व का कोई भी व्यक्ति व्हाइट हाउस में हेलीकॉप्टर द्वारा नहीं पहुँचा था।

कार्यकाल

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की तुलना में राधाकृष्णन का कार्यकाल काफ़ी कठिनाइयों से भरा था। इनके कार्यकाल में जहाँ भारत-चीन युद्ध और भारत-पाकिस्तान युद्ध हुए, वहीं पर दो प्रधानमंत्रियों की पद पर रहते हुए मृत्यु भी हुई। 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था तो भारत की अपमानजनक पराजय हुई थी। उस समय वी. के. कृष्णामेनन भारत के रक्षामंत्री थे। तब पंडित नेहरू को डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ही मजबूर किया था कि कृष्णामेनन से इस्तीफ़ा तलब करें, जबकि नेहरू जी ऐसा नहीं चाहते थे।

चीन के साथ युद्ध में पराजित होने के बाद डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन पंडित नेहरू की भी आलोचना की थी। बेशक वह पंडित नेहरू के काफ़ी निकट थे, लेकिन उन्होंने आलोचना के स्थान पर आलोचना की और मार्गदर्शन की आवश्यकता होने पर मार्गदर्शन भी किया। यह राधाकृष्णन ही थे जिन्होंने पंडित नेहरू को मजबूर किया था कि वह लालबहादुर शास्त्री को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान प्रदान करें। उस समय कामराज योजना के अंतर्गत शास्त्री जी बिना विभाग के मंत्री थे। पंडित नेहरू के गम्भीर रूप से बीमार रहने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय शास्त्रीजी के परामर्श से ही चलता था।

संवैधानिक व्यवस्था

सर्वपल्ली राधाकृष्णन
Sarvepalli Radhakrishnan

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के कार्यकाल में ही पंडित नेहरू और शास्त्रीजी की प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मृत्यु हुई थी। लेकिन दोनों बार नये प्रधानमंत्री का चयन सुगमतापूर्वक किया गया। जबकि दोनों बार उत्तराधिकारी घोषित नहीं था और न ही संवैधानिक व्यवस्था में कोई निर्देश था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए।

1967 के गणतंत्र दिवस पर डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने देश को सम्बोधित करते हुए यह स्पष्ट किया था कि वह अब किसी भी सत्र के लिए राष्ट्रपति नहीं बनना चाहेंगे। यद्यपि कांग्रेस के नेताओं ने उनसे काफ़ी आग्रह किया कि वह अगले सत्र के लिए भी राष्ट्रपति का दायित्व ग्रहण करें, लेकिन राधाकृष्णन ने अपनी घोषणा पर पूरी तरह से अमल किया।

अवकाशकालीन जीवन

डॉक्टर राधाकृष्णन राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल पूर्ण करने के बाद गृहराज्य के शहर मद्रास चले गए। वहाँ उन्होंने पूर्ण अवकाशकालीन जीवन व्यतीत किया। 1968 में उन्हें भारतीय विद्या भवन के द्वारा सर्वश्रेष्ठ सम्मान देते हुए साहित्य अकादमी की सदस्यता प्रदान की गई। डॉक्टर राधाकृष्णन ने एक साधारण भारतीय इंसान की तरह अपना जीवन गुज़ारा था। वह परम्परागत वेशभूषा में रहते थे। वह सफ़ेद वस्त्र धारण करते थे और उस पर कोई भी दाग़ नहीं होता था। वह सिर पर दक्षिण भारतीय पगड़ी पहनते थे, जो कि भारतीय संस्कृति का प्रतीक बनकर सारे विश्व में जानी गई। राधाकृष्णन साधारण खाना खाते थे और जीवन पर्यन्त शाकाहारी रहे। उन्होंने एक बेहतरीन लेखक के रूप में 150 से अधिक रचनाएँ लिखीं।

सम्मान और पुरस्कार

अपने दर्शन शास्त्रीय विचारों के प्रकाशन द्वारा सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पश्चिम का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इन्हें 1922 में 'ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय' द्वारा 'दि हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ' विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। इन्होंने लंदन में ब्रिटिश एम्पायर के अंतर्गत आने वाली यूनिवर्सटियों के सम्मेलन में कलकत्ता यूनिवर्सटी का प्रतिनिधित्व भी किया। 1926 में राधाकृष्णन ने यूरोप और अमेरिका की यात्राएँ भी कीं। इनका सभी स्थानों पर शानदार स्वागत किया गया। इन्हें आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड, प्रिंसटन और शिकागो विश्वविद्यालयों के द्वारा सम्मानित भी किया गया। डॉक्टर राधाकृष्णन को यूरोप एवं अमेरिका के प्रवास के प्रत्येक क्षणों की स्मृति थी। इंग्लैण्ड के समाचारों पत्रों ने इनके वक्तव्यों की आदर के साथ प्रशंसा की। उनकी टिप्पणियों से प्रकट होता था कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ऐसी प्रतिभा हैं जो न केवल भारत के दर्शन शास्त्र की व्याख्या कर सकता है बल्कि पश्चिम का दर्शन शास्त्र भी उनकी प्रतिभा के दायरे में आ जाता है। एक शिक्षाविद् के रूप में उनको असीम प्रतिभा का धनी माना गया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने महान् दार्शनिक शिक्षाविद और लेखक डॉ. राधाकृष्णन को देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया।

मानद उपाधियाँ

जब डॉक्टर राधाकृष्णन यूरोप एवं अमेरिका प्रवास से पुनः भारत लौटे तो यहाँ के विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें मानद उपाधियाँ प्रदान कर उनकी विद्वत्ता का सम्मान किया गया। 1928 की शीत ऋतु में इनकी प्रथम मुलाक़ात पंडित जवाहर लाल नेहरू से उस समय हुई, जब वह कांग्रेस पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए कोलकाता आए हुए थे। यद्यपि सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय शैक्षिक सेवा के सदस्य होने के कारण किसी भी राजनीतिक संभाषण में हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे, तथापि उन्होंने इस वर्जना की कोई परवाह नहीं की और भाषण दिया। 1929 में इन्हें व्याख्यान देने हेतु 'मेनेचेस्टर विश्वविद्यालय' द्वारा आमंत्रित किया गया। इन्होंने मेनचेस्टर एवं लंदन में कई व्याख्यान दिए। इनकी शिक्षा सम्बन्धी उपलब्धियों के दायरे में निम्नवत संस्थानिक सेवा कार्यों को देखा जाता है-

डॉक्टर राधाकृष्णन वाल्टेयर विश्वविद्यालय, आंध्र प्रदेश के 1931 से 1936 तक वाइस चांसलर रहे।आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के 1936 से 1952 तक प्रोफेसर रहे।कलकत्ता विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।1939 से 1948 तक बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।1940 में प्रथम भारतीय के रूप में ब्रिटिश अकादमी में चुने गए।1948 में यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं डॉ. ज़ाकिर हुसैन ए.एम.यू. के विद्यार्थियों के साथ

योगदान

शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन का अमूल्य योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह एक विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे। अपने जीवन में अनेक उच्च पदों पर रहते हुए भी वह शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान देते रहे। उनका कहना था कि यदि शिक्षा सही प्रकार से दी जाए तो समाज से अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।

निधन

सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन ने लम्बी बीमारी के बाद 17 अप्रैल, 1975 को प्रातःकाल अन्तिम साँस ली। वह अपने समय के एक महान् दार्शनिक थे। देश के लिए यह अपूर्णीय क्षति थी।